समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार -एक अध्ययन

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शनिवार, 11 अगस्त 2012



हाइकु



नया स्वाँग ले
दुख बहुरूपिया
रोज आ जाए


चाक पे रक्खे
गीली मिट्टी, सोचूँ मैं
गढ़ूँ आज क्या


कौन छंद में
दुख की धड़कन!
तुझको बांधू


बस ये चाहूँ
बहे मेरी आँखों से
तेरा ये दुख


कवि के लिए
ये दुख और पीड़ा
अक्षय ऊर्जा


हे प्रभु आज!
मेरे घर फाँके हैं
कोई न आए







शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

ग़ज़ल 


दावानल सोया है कोई जहाँ एक चिंगारी में 

ठीक वहीं पर हवा व्यस्त है तूफॉँ की तैयारी में 


जिद्दी बच्चे जैसा मौसम समझे क्या समझाये क्या

जाने क्या क्या बोल रहा है हिलकारी सिसकारी में


सागर के भीतर कि लहरें अक्सर बतला देती हैं 

कुंठा का रस्ता खुलता है हिंसा कि औसरी में 


वो लौटी है सूखी आंखे टार टार दामन लेकर

जाने उसने क्या देखा था सपनों के व्यापारी में 


जब से यहाँ नगर में आया आकार ऐसा उलझा हूँ 

भूल गया हूँ घर ही अपना घर कि जिम्मेदारी में   


अपने छोटे होते कपड़े बच्चों को पहनता हूँ 

तहकर के रक्खे  जो मैंने आँखों कि अलमारी में 


तेरहवी के दिन बेटों के बीच बहस बस इतनी थी

किसने कितने खर्च किए हैं अम्मा की बीमारी में 


इससे बेहतर काम नहीं है इस आकाल के मौसम में 

आओ मिलकर खुशबू खोजें काँटों वाली क्यारी में 





मुक्तक में दो बयान || गरीब और अमीर 


आज हुई न अगर बोहनी दिन छल जायेगा

बिन पैसे के आस का यह सूरज ढाल जायेगा

मिट्टी का बस एक खिलौना ले लो बाबूजी

मेरे घर भी आज शाम चूल्हा जल जायेगा 


वो कहता कुछ पाने को कुछ खोना पड़ता है

धंधे में तो हँसना लड़ना रोना पड़ता है 

बड़े ठाठ हैं खूब मजे हैं मुश्किल बस इतनी

रोज नींद की गोली खाकर सोना पड़ता है

 

 

 

 

 

दोहे 


केवल दुख सहते रहो, यही नहीं है कार्य 

अपने दुख को शब्द भी, देना है अनिवार्य 


मिलते जुलते हैं बहुत, अपने अहसासात

इसीलिए तो कह रहा, सुन ले मेरी बात


संशय के सुनसान में, जला जला कर दीप

दुख कि आहात रात भर, सुनता रहे 'समीप'


कोई तो सुन ले यहाँ, मेरे दिल का राज़

सूख गया मेरा गला, दे दे कर आवाज़ 


आखिर अपने दुख का, किस को दें इल्ज़ाम 

जितनी मिलीं तबहियाँ, सब कि सब बेनाम 


क्या तुमको मालूम है, उपवन में इस बार

शोले लेकर आई है, शातिर क्रूर बहार 


दुर्योधन सा वक्त यह, बोला रहा अपशब्द 

वहीं हमारे सुरमा, बैठे हैं निशब्द 


इतना भी बूढ़ा न था, न ज़मीन थी सख्त

फिर ऐसा कैसे हुआ, मुरझा गया दरख्त 


पानी ही पानी रहा जिनके चारों ओर

प्यासा प्यासा चिल्ला रहे वही लोग पुरजोर


गर्व करें किस पर यहाँ, किस पर करें विमर्श 

आधा है यह इंडिया, आधा भारतवर्ष


आने वाले वक्त की कैसे हो पहचान 

वर्तमान बेचहरा याद लहूलुहान 


बिना रफू के ठीक थी, शायद फटी कमीज़

बाद रफू के हो गई, वो दो रंगी चीज़ 


फिसल हाथ से क्या गिरी, संबंधों की प्लेट 

पूरी उम्र 'समीपजी', किरचें रहें समेट


जाने कैसी चाह ये, जाने कैसी खोज

एक छाव की आस में, चलूँ धूप में रोज 


क्यों रे दुखिया क्या तुझे इतनी नहीं तमीज़

मुखिया के घर आ गया, पहने नई कमीज़ 


खाली माचिस जोड़कर, एक बनाऊँ रेल

बच्चा-सा हर रोज़ मैं, उससे रहा धकेल 


अब भी अपने गाँव में बेटी यही रिवाज

पहले कतरें पंख फिर कहें भर परवाज़ 


उस दुखिया माँ पर अरे, कुछ तो कर ले गौर 

तुझे खिलाती जो रही, फूँक-फूँक कर कौर  


आयेगी माँ आयेगी यूं मत हो मायूस

तू बस थोड़ी देर और अंगूठा चूस


पुलिस पकड़कर के गई, सिर्फ उसी को साथ

आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ 


मरने पर उस व्यक्ति के बस्ती करे विलाप

पेड़ गिरा तब हो सकी ऊंचाई कि नाप 


कैसे तय कर पायेगा वो रहें दुश्वार 

लिये सफर के वास्ते जिसने पाँव उधार 


इतना ही मालूम है, इस जीवन का सार

बंद कभी होते नहीं, उम्मीदों के द्वार 


फिर निराश मन में जगी, नवजीवन कि आस

चिड़िया रोशनदान पर, फिर से लाई घास 


आओ हम उजियार दें यह धरती यह व्योम

तुम बन जाओ वर्तिका मैं बन जाॐ मोम