मेरे चुने हुए अशआर और दोहे
बाढ़, सूखा, अकाल काग़ज़ पर
हम हुए मालामाल काग़ज़
पर
लाइनें थीं
जहाँ मरीज़ों की
था वहाँ अस्पताल
काग़ज़ पर
बजाई तालियाँ हमने वहाँ
पर
जहाँ तमगे मिले थे
तस्करों को
स्याह रातों में ये
जुगनू की ज़िया है तो सही
दिल के बहलाने को इक लोकसभा है तो सही
देखकर रेल के डिब्बे
बुहारता बचपन
लोग कह देते
हैं पाँवों पे खड़ा है तो सही
जब भी मिलता है वो
झुँझला के बात करता है
कुछ न कुछ उसको
जमाने से गिला है तो सही
एक ही मंजिल है उनकी एक ही है रास्ता
क्या सबब फिर हमसफ़र
से हमसफ़र लड़ने लगे
मेरा साया तेरे साए
से बड़ा होगा इधर
बाग़ में इस बात पर दो गुलमुहर लड़ने लगे
जहाँ कुछ आग के
बच्चे शरारत पर उतारू हैं
वहीं हुक्काम ने बारूद बिछवाने की है ठानी
समय के ज़ंग खाये पेंच दाँतो से नहीं खुलते
हमें बदलाव की तरकीब
जल्दी है यहाँ लानी
साँसें बचा के रख‚ तू अभी इन्तज़ार कर
दिन भर का कैश गिन
रहा है डॉक्टर अभी
बस इसलिए कि जश्न में पड़ जाए न खलल
माँ चल बसी ये दाब रखी है खबर अभी
खुद को पाने की सनक
में खुद को ज़ख्मी कर रहा
आइने से लड़ रहा है
इक परिंदा बार बार
वक्त के इस शार्पनर
में ज़िंदगी छिलती रही
मैं बनाता ही रहा इस पैंसिल को नोकदार
ये न पूछो है गोलमाल कहाँ
ये बताओ है कोतवाल कहाँ
वो मेरा दोस्त है मेरा अज़ीज़ है फिर भी
मुझे सिखाता है
चालाकियाँ हुनर की तरह
वो शाख ¬शाख मेरी काटकर जलाता है
मुझे समझता है सूख्Ü
हुए शजर की तरह
ज़ख्.म ज़ख्.म लौटा
हूँ रोज़
इस शहर से मैं
ये शहर है या कोई कैक्टस का जंगल है
जो चाहते हैं मुझमें
और तुझमें अदावत
वे चाहते
हैं अपनी हुकूमत
बनी रहे
क्या हर्ज़ है सड़क को घुमाकर निकाल लें
गर लोग
चाहते हैं इमारत बनी
रहे
जब शाम को लौटें तो
कोई मुंतज़िर तो हो
इतनी तो तेरी घर में
ज़रूरत बनी रहे
पंख हंै‚ परवाज़ की चाहत भी है‚ हिम्मत भी है
हम नए पंछी हैं‚
हमको दीजिए आकाश भी
बाँझ हैं एहसास
जिनके और नपुंसक हैं विचार
वे ही कहते फिर रहे 'पैदा
करेंगे शायरी '
रैलियों दंगों तमाशों की न थी फ़ुरसत मुझे
मैं दिहाड़ी पर गया
था क्यों
मुझे गोली लगी
समय क्यों पूछते हो
इससे उससे
तुम्हारे पास तो अपनी
घड़ी है
शामियाने–¬से सजे हैं
आजकल अपने नगर
गाँव खूँटी
और रस्सी‚ हो गई
पगडंडियाँ
खौफ़ बेचा जा रहा‚
बाज़ार में
कम दाम पर
क्योंकि ज़ालिम कÜ‚
मुनाफ़े में ‚ तबाही चाहिए
सिर्फ़ कहने के लिए जम्हूरियत है देश में
आज भी
आवाम को ज़िल्ले-इलाही चाहिए
आपकी बातों में आकर आपके हम हो लिए
क्या पता था आपको भी बादशाही
चाहिए
कुछ तो बोलो आपस
में तुम बातचीत मत बंद करो
पड़ जाएगी
संबंधों कÜ वर्ना ढÜनी
ख्.ाामÜशी
अब के लफ़्ज़ दराँती भाले लाठी लेकर आए हैं
नए वक्त के चेहरे पर
है तनी घिनौनी खामोशी
खोज ही लेंगे नया
आकाश ये नन्हे परिंद
इन परिंदों को ज़रा
तुम पंख फैलाने तो दो
कब तलक डरते रहोगे‚
ये न हो‚फिर वो न हो
जो भी होना है‚ उसे इस बार हो जाने तो दो
माँगने आया है जालिम
आपके हस्ताक्षर
यूँ न आँखें बन्द
करके कीजिये हस्ताक्षर
दिल के हालात क्या
बताऊँ मैं
आजकल काश्मीर
जैसे हैं
कोई शिल्पी उसे यूँ
छोड़ गया
वÜ न मूरत है‚ अब
न पत्थर है
लाइनें थीं
जहाँ मरीज़ों की
था वहाँ अस्पताल
काग़ज़ पर
मेरे घर आग से नहीं
ख्ÜलÜ
घर में सूखी पुआल है यारÜ
इस आलीशान महल में
बस एक ही दुख है
किसी को फ़िक्र
नहीं है किसी के बारे में
विलायत से
मुस्कानें आयात करके
हमारी उदासी
का उपचार होगा
साँसें बचा के रख‚ तू अभी इन्तज़ार कर
दिन भर का कैश गिन
रहा है डॉक्टर अभी
रैलियों‚ दंगों‚ तमाशों
की न थी फ़ुरसत मुझे
मैं दिहाड़ी पर गया था‚ क्यों मुझे गोली लगी
देखकर रेल के
डिब्बे बुहारता बचपन
लोग कह देते हैं पाँवों
पे खड़ा है तो सही
ग़रीब आदमी क्यों कर
ग़रीब है अब तक
मुझे यकीन है‚
अब तक उसे नहीं मालूम
वो मेरा दोस्त है मेरा अज़ीज़ है फिर भी
मुझे सिखाता है
चालाकियाँ हुनर की तरह
अपने छोटे होते कपड़े
बेटे को पहनाऊँ मैं
तह करके रक्खे जो
मैंने आँखों की अलमारी में
तेरहवीं के दिन बेटों के बीच बहस बस इतनी थी
किसने कितने खर्च
किए हैं अम्मा की बीमारी में
जंगल में एक चिड़िया
बची है‚ तो बहुत है
वो चीख के खामोशियाँ
तो तोड़ रही है
तमाचा मार लो‚
बटुआ छुड़ालो‚ कुछ भी कर डालो
ये दुनियादार शहरी
हैं‚ इन्हें गुस्सा नहीं आता
सुलगते लफ़्ज़ हाथों
में उठाए फिर रहा हूँ मैं
मुझे मालूम है‚
इस राह में दरिया नहीं आता
खाली पन्नों पे वो
सूरज बनाता रहता है
कुछ न कुछ उसको
अँधेरे से गिला है तो सही
तुम्हें ऐ जालिमो!
शायद खबर नहीं अबतक
समय ने फेंक दिये
तुमसे उठाकर कितने
विलायत से
मुस्कान आयात करके
हमारी उदासी
का उपचार होगा
वÜ इस शर्त पर मुंसिफ़ी पा गया है
कि वो हाकिमों का
मददगार होगा
बÜनज़ाई गमले में
है
ज्यों छोटू ढाबे
में है
सच कहना आसान मगर
मुश्किल सच सुनने
में है
लड़ने वाले ये भी देख
तू किसके खेमे में है
भूख का मारा इक पूरा
घर
रात ज़हर खाकर सोया
है
दोहे
मरने पर उस व्यक्ति
के बस्ती करे विलाप
पेड़ गिरा तब हो सकी
ऊंचाई की नाप
फिसल हाथ से क्या
गिरी सम्बंधों की प्लेट
पूरी उम्र समीपजी
किरचें रहे समेट
पता नहीं कैसे रहे,
हम जीवन भर साथ
मैंने अपनी बात की,
तूने अपनी बात
मैं उससे कब तक
मिलूं, अपनेपन के साथ
अपनेपन की खाल में,
जो करता है घात
बिना मिले तुम चल
दिए, बिना बताए बात
रही चीखती टिटहरी,
अब के पूरी रात
मुझको देहरी पर हुआ
देरी का अहसास
भूल गया लो आज फिर
पत्नी का उपवास
वो थी बातूनी कभी,
जैसे टॉकिंग डॉल
ये किसने ओढ़ा दिया खामोशी
का शॉल
नाम कमाएगी बड़ा देख
रही वह ख्वाब
ठीक वहीं इक छोकरा
लिए खड़ा तेजाब
लड़की को सुनसान में,
मिले शोहदे चन्द
टुकड़े टुकड़े हो गई,
इक आवाज बुलन्द
बर्बरता करती रही पूरी रात प्रयोग
चीख चीख लड़की थकी उठे न सोए लोग
अपनी सारी क्रूरता अभिनय् बीच लपेट
वो करता है रोज ही औरत का आखेट
गर्भाशय से आ रही उसकी करुण पुकार
मां मुझसे मत छीन तू जीने का अधिकार
दुनिया को समझा गए
दो प्रेमी ये मर्म
प्यार अभी जिन्दा
यहां मरे सिर्फ दो धर्म
होगी ‘तीन
तलाक‘ की अब पूरी तस्दीक
तुम क्या समझे ! थूक दी तम्बाखू की पीक
अब भी अपने गांव में
बेटी यही रिवाज
पहले कतरें पंख फिर
कहें भरो परवाज
रिश्ते उसके वास्ते
एक गिलौरी पान
खाया चूसा थूककर
दूजे का संधान
दिया गया सब कुछ उसे जो था उसे पसंद
लेकिन पिंजरे में रखा करके हरदम बन्द
जा बन जा विद्रोहिणी और
न रह मासूम
माँ ने बेटी से कहा उसका
माथा चूम
वो नन्हीं सी है मगर करे समय् से होड़
रोज मेरे अखबार को कर दे तोड़-मरोड़
उस बूढ़ी मां पर अरे कुछ तो कर ले गौर
तुझे खिलाती जो रही फूंक फूंक कर कौर
सम्बंधों का दायरा
आज हुआ यूं तंग
बेटा राजी ही नहीं
मां को रखने संग
क्यों रे दुखिया
क्या तुझे इतनी नहीं तमीज
मुखिया के घर आ गया
पहने नई कमीज
बचपन में जिसकी कलम
वक्त ले गया छीन
बालपेन वह बेचता बस
में दस के तीन
पुलिस पकड़ कर ले गयी
सिर्फ उसीको साथ
आग बुझाने में जले
जिसके दोनों हाथ
पहले तो उसने
तुम्हें बहुत पुकारा कृष्ण
लटक गया वह अन्त में
बनकर बेबस प्रश्न
बरसों अनजाना रहा
मैं यारों के बीच
पम्फलेट ज्यों अनपढ़ा
अखबारों के बीच
खाली माचिस जोड़कर एक
बनाऊं रेल
बच्चे सा हर रोज मैं
इसको रहा धकेल
बिना रफू के ठीक थी
शायद फटी कमीज
बाद रफू के हो गई वो
दो रंगी चीज
तुम्हें देखकर आ गया
मुझे बहुत कुछ याद
गहनों का बक्शा खुला
बड़े दिनों के बाद
आज अचानक कर गया
बेटा बचपन पार
निकली उसकी जेब से
चिट्ठी खुशबूदार
खड़े रहे मुंह ताकते
निर्बल औ‘ नादान
फिर विकास का फायदा
हड़प गए धनवान
इस विकास के नाम से
खूब हुआ खिलवाड़
जंगल में घर उग रहे
बालकनी में झाड़
टहल रहा वो सामने
मायावी मारीच
उसके पीछे कामना
भागे आंखें मीच
घर में खाने को नहीं
फिर भी लेकर लोन
घूम रहा है इंडिया
ले मोबाइल फोन
छोड़े बच्चे गांव घर
पाया रुपया नाम
इतनी सस्ती चीज के
इतने सस्ते दाम
बिटिया को करती विदा
मां ज्यों नेह समेत
नदिया सिसके देखकर
ट्रक में जाती रेत
फिर निराश मन में
जगी नवजीवन की आस
चिड़िया रोशनदान पर
फिर से लाई घास
जूतों की कीमत चुकी
साढ़े सात हजार
कविता की पुस्तक मगर
सौ रुपए में भार
जी चाहा तो चख लिया
वर्ना है बेकार
कनिता अब तो प्लेट
में रक्खा हुआ अचार
धीरज धर धर थक गई
थमे न अत्याचार
नदी खुदकुशी कर गई
कब तक करे पुकार
छू मत लेना तुम इसे
ये बन गई अजाब
दरिया में पानी नहीं
बहता है तेजाब