समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार -एक अध्ययन

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बुधवार, 9 अगस्त 2017

मेरे चुने हुए अशआर और दोहे 

बाढ़,  सूखा, अकाल काग़ज़ पर
हम हुए मालामाल काग़ज़ पर

लाइनें  थीं  जहाँ  मरीज़ों  की         
था वहाँ अस्पताल काग़ज़ पर

बजाई तालियाँ हमने वहाँ पर                         
जहाँ तमगे मिले थे तस्करों को
          
स्याह रातों  में  ये जुगनू की ज़िया है तो  सही                     
दिल के बहलाने को  इक लोकसभा है तो  सही

देखकर रेल के डिब्बे बुहारता बचपन                             
लोग कह देते हैं  पाँवों  पे खड़ा है तो  सही

जब भी मिलता है वो झुँझला के बात करता है
कुछ न कुछ उसको जमाने से गिला है तो सही

एक ही मंजिल है उनकी एक ही है रास्ता              
क्या सबब फिर हमसफ़र से हमसफ़र लड़ने लगे 

मेरा साया तेरे साए से बड़ा होगा इधर                 
बाग़ में  इस बात पर दो गुलमुहर लड़ने लगे

जहाँ कुछ आग के बच्चे शरारत पर उतारू हैं        
वहीं  हुक्काम ने बारूद बिछवाने की है ठानी  

समय के  ज़ंग खाये पेंच दाँतो से नहीं खुलते
हमें बदलाव की तरकीब जल्दी है यहाँ  लानी

साँसें  बचा के रखतू अभी इन्तज़ार कर                
दिन भर का कैश गिन रहा है डॉक्टर अभी

बस इसलिए कि जश्न में पड़ जाए न खलल              
माँ चल बसी ये दाब रखी है खबर अभी

खुद को पाने की सनक में खुद को ज़ख्मी कर रहा    
आइने से लड़ रहा है इक परिंदा बार बार

वक्त के इस शार्पनर में ज़िंदगी छिलती रही              
मैं  बनाता ही रहा इस पैंसिल को नोकदार

ये न पूछो है गोलमाल कहाँ                           
ये  बताओ है  कोतवाल  कहाँ

वो मेरा दोस्त है मेरा अज़ीज़ है फिर भी                  
मुझे सिखाता है चालाकियाँ हुनर की तरह

वो शाख ¬शाख मेरी काटकर जलाता है                
मुझे समझता है सूख्Ü हुए शजर की तरह

ज़ख्.म ज़ख्.म लौटा हूँ रोज़ इस शहर से मैं           
ये शहर है या कोई कैक्टस का जंगल है

जो चाहते हैं मुझमें और तुझमें अदावत             
वे  चाहते  हैं  अपनी  हुकूमत  बनी  रहे
           
क्या हर्ज़ है सड़क को घुमाकर निकाल लें             
गर  लोग  चाहते  हैं  इमारत  बनी  रहे

जब शाम को  लौटें  तो कोई मुंतज़िर तो हो            
इतनी तो तेरी घर में ज़रूरत बनी रहे

पंख हंैपरवाज़ की चाहत भी हैहिम्मत भी है                     
हम नए पंछी हैंहमको दीजिए आकाश भी
  
बाँझ हैं एहसास जिनके और नपुंसक हैं विचार                            
वे ही कहते फिर रहे 'पैदा करेंगे शायरी '

रैलियों दंगों तमाशों की न थी फ़ुरसत मुझे                                      
मैं दिहाड़ी पर गया था क्यों मुझे गोली लगी

समय क्यों पूछते हो इससे उससे            
तुम्हारे पास  तो अपनी  घड़ी  है

शामियाने¬से  सजे  हैं  आजकल  अपने  नगर                                   
गाँव  खूँटी  और  रस्सी‚  हो  गई  पगडंडियाँ

खौफ़ बेचा जा रहाबाज़ार में  कम दाम पर                 
क्योंकि ज़ालिम कÜ‚ मुनाफ़े में तबाही चाहिए

सिर्फ़  कहने के लिए जम्हूरियत है देश में                   
आज  भी  आवाम  को  ज़िल्ले-इलाही  चाहिए

आपकी बातों में आकर आपके हम हो  लिए                     
क्या  पता  था आपको  भी बादशाही  चाहिए
कुछ तो बोलो  आपस में तुम बातचीत मत बंद करो             
पड़ जाएगी संबंधों  कÜ वर्ना ढÜनी ख्.ाामÜशी  

अब के लफ़्ज़ दराँती भाले लाठी लेकर आए हैं                
नए वक्त के चेहरे पर है तनी घिनौनी खामोशी

खोज ही लेंगे नया आकाश ये नन्हे परिंद                
इन परिंदों को ज़रा तुम पंख फैलाने तो दो

कब तलक डरते रहोगेये न होफिर वो न हो                                    
 जो भी होना हैउसे इस बार हो जाने तो दो

माँगने आया है जालिम आपके हस्ताक्षर
यूँ न आँखें बन्द करके कीजिये हस्ताक्षर

दिल के हालात क्या बताऊँ मैं
आजकल  काश्मीर  जैसे  हैं

कोई शिल्पी उसे यूँ छोड़ गया
Ü न मूरत हैअब न पत्थर है

लाइनें  थीं  जहाँ  मरीज़ों  की
था वहाँ अस्पताल काग़ज़ पर

मेरे घर आग से नहीं ख्ÜÜ
घर में  सूखी पुआल है यारÜ

इस आलीशान महल में बस एक ही दुख है
किसी को फ़िक्र नहीं  है किसी के बारे में

विलायत  से  मुस्कानें आयात  करके
हमारी  उदासी  का  उपचार  होगा

साँसें  बचा के रखतू अभी इन्तज़ार कर
दिन भर का कैश गिन रहा है डॉक्टर अभी

रैलियोंदंगोंतमाशों की न थी फ़ुरसत मुझे                                      
 मैं दिहाड़ी पर गया थाक्यों मुझे गोली लगी

देखकर रेल  के  डिब्बे  बुहारता  बचपन
लोग कह देते हैं पाँवों पे खड़ा है तो सही

ग़रीब आदमी क्यों कर ग़रीब है अब तक
मुझे यकीन हैअब तक उसे नहीं  मालूम

वो मेरा दोस्त है मेरा अज़ीज़ है फिर भी
मुझे सिखाता है चालाकियाँ हुनर की तरह

अपने छोटे होते कपड़े बेटे को पहनाऊँ मैं
तह करके रक्खे जो मैंने आँखों की अलमारी में

तेरहवीं  के दिन बेटों के बीच बहस बस इतनी थी
किसने कितने खर्च किए हैं  अम्मा की बीमारी में

जंगल में एक चिड़िया बची हैतो बहुत है
वो चीख के खामोशियाँ तो तोड़ रही है


तमाचा मार लोबटुआ छुड़ालोकुछ भी कर डालो          
ये दुनियादार शहरी हैंइन्हें गुस्सा नहीं  आता

सुलगते लफ़्ज़ हाथों में उठाए फिर रहा हूँ मैं             
मुझे मालूम हैइस राह में दरिया नहीं  आता

खाली पन्नों पे वो सूरज बनाता रहता है
कुछ न कुछ उसको अँधेरे से गिला है तो सही

तुम्हें ऐ जालिमो! शायद खबर नहीं अबतक
समय ने फेंक दिये तुमसे उठाकर कितने

विलायत  से  मुस्कान आयात  करके                    
हमारी  उदासी  का  उपचार  होगा

Ü इस शर्त पर मुंसिफ़ी पा गया है                  
कि वो हाकिमों का मददगार होगा

Üनज़ाई गमले में  है             
ज्यों छोटू ढाबे में  है

सच कहना आसान मगर           
मुश्किल सच सुनने में है

लड़ने वाले ये भी देख            
तू  किसके  खेमे  में  है

भूख का मारा इक पूरा घर   
रात ज़हर खाकर सोया है 

दोहे
मरने पर उस व्यक्ति के बस्ती करे विलाप
पेड़ गिरा तब हो सकी ऊंचाई की नाप

फिसल हाथ से क्या गिरी सम्बंधों की प्लेट
पूरी उम्र समीपजी किरचें रहे समेट

पता नहीं कैसे रहे, हम जीवन भर साथ
मैंने अपनी बात की, तूने अपनी बात

मैं उससे कब तक मिलूं, अपनेपन के साथ
अपनेपन की खाल में, जो करता है घात

बिना मिले तुम चल दिए, बिना बताए बात
रही चीखती टिटहरी, अब के पूरी रात

मुझको देहरी पर हुआ देरी का अहसास
भूल गया लो आज फिर पत्नी का उपवास

वो थी बातूनी कभी, जैसे टॉकिंग डॉल
ये किसने ओढ़ा दिया खामोशी का शॉल

नाम कमाएगी बड़ा देख रही वह ख्वाब
ठीक वहीं इक छोकरा लिए खड़ा तेजाब

लड़की को सुनसान में, मिले शोहदे चन्द
टुकड़े टुकड़े हो गई, इक आवाज बुलन्द

बर्बरता करती रही पूरी रात प्रयोग
चीख चीख लड़की थकी उठे न सोए लोग


अपनी सारी क्रूरता अभिनय् बीच लपेट
वो करता है रोज ही औरत का आखेट

गर्भाशय से आ रही उसकी करुण पुकार
मां मुझसे मत छीन तू जीने का अधिकार

दुनिया को समझा गए दो प्रेमी ये मर्म
प्यार अभी जिन्दा यहां मरे सिर्फ दो धर्म

होगी  तीन तलाक‘  की अब पूरी तस्दीक
तुम क्या समझे  ! थूक दी तम्बाखू की पीक


अब भी अपने गांव में बेटी यही रिवाज
पहले कतरें पंख फिर कहें भरो परवाज






रिश्ते उसके वास्ते एक गिलौरी पान
खाया चूसा थूककर दूजे का संधान

दिया गया सब कुछ उसे जो था उसे पसंद
लेकिन  पिंजरे में रखा करके हरदम  बन्द


जा बन जा विद्रोहिणी  और न रह मासूम
माँ ने बेटी से कहा  उसका माथा चूम

वो नन्हीं सी है मगर करे समय् से होड़
रोज मेरे अखबार को कर दे तोड़-मरोड़


उस बूढ़ी मां पर अरे  कुछ तो कर ले गौर
तुझे  खिलाती जो रही फूंक फूंक कर कौर

सम्बंधों का दायरा आज हुआ यूं तंग
बेटा राजी ही नहीं मां को रखने संग

क्यों रे दुखिया क्या तुझे इतनी नहीं तमीज
मुखिया के घर आ गया पहने नई कमीज

बचपन में जिसकी कलम वक्त ले गया छीन
बालपेन वह बेचता बस में दस के तीन

पुलिस पकड़ कर ले गयी सिर्फ उसीको साथ
आग बुझाने में जले जिसके दोनों हाथ

पहले तो उसने तुम्हें बहुत पुकारा कृष्ण
लटक गया वह अन्त में बनकर बेबस प्रश्न

बरसों अनजाना रहा मैं यारों के बीच
पम्फलेट ज्यों अनपढ़ा अखबारों के बीच

खाली माचिस जोड़कर एक बनाऊं रेल
बच्चे सा हर रोज मैं इसको रहा धकेल

बिना रफू के ठीक थी शायद फटी कमीज
बाद रफू के हो गई वो दो रंगी चीज



तुम्हें देखकर आ गया मुझे बहुत कुछ याद
गहनों का बक्शा खुला बड़े दिनों के बाद

आज अचानक कर गया बेटा बचपन पार
निकली उसकी जेब से चिट्ठी खुशबूदार

खड़े रहे मुंह ताकते निर्बल औनादान
फिर विकास का फायदा हड़प गए धनवान

इस विकास के नाम से खूब हुआ खिलवाड़
जंगल में घर उग रहे बालकनी में झाड़

टहल रहा वो सामने मायावी मारीच
उसके पीछे कामना भागे आंखें मीच

घर में खाने को नहीं फिर भी लेकर लोन
घूम रहा है इंडिया ले मोबाइल फोन

छोड़े बच्चे गांव घर पाया रुपया नाम
इतनी सस्ती चीज के इतने सस्ते दाम

बिटिया को करती विदा मां ज्यों नेह समेत
नदिया सिसके देखकर ट्रक में जाती रेत

फिर निराश मन में जगी नवजीवन की आस
चिड़िया रोशनदान पर फिर से लाई घास

जूतों की कीमत चुकी साढ़े सात हजार
कविता की पुस्तक मगर सौ रुपए में भार

जी चाहा तो चख लिया वर्ना है बेकार
कनिता अब तो प्लेट में रक्खा हुआ अचार

धीरज धर धर थक गई थमे न अत्याचार
नदी खुदकुशी कर गई कब तक करे पुकार

छू मत लेना तुम इसे ये बन गई अजाब
दरिया में पानी नहीं बहता है तेजाब










शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

मैं अयोध्या...


जज साब !
बचा लो मुझे
बचा लो...
इस अनैतिक सियासत से / इस लम्पट दौर से 

जज साब!
सुन लो मेरी शिकायत 
ले लो मेरी गवाही
लिख लो मेरा बयान

जज साब!
मैं अयोध्या
सरयू-पुत्र अयोध्या 
आपकी अदालत में 
जो कहूँगा 
सच कहूँगा...

जज साब ! यूँ तो वह 
6 दिसम्बर 1992 का दिन था 
मगर हालात ऐसे थे कि वह 
उन दिनों की  
कोई भी तारीख हो सकती थी

उसी दिनों हुआ था
उन तीन गुम्बदों का ध्वंस 
मेरे सांझेपन का कत्ल 
मेरी तहज़ीब का अपहरण 
मेरी पहचान का बलात्कार

जी हाँ जज साब !
मैं वही था उस वक्त 
बेबस और असहाय 
सती होती स्त्री-सा 
जिब्ह होते बकरे-सा 
सूली पर चढ़ते निरपराध-सा 
अपहृत सीता-सा
भयाक्रांत और उद्विग्न  

क्योंकि घोषित हो रहा था 
कि किसी भी वक्त
धकेल दिया जाएगा मुझे
वहीं 'सरयू' में 
कथित धर्म-रक्षार्थाय 

उस दिनों ...
मेले में गुम हुए बच्चे की तरह 
मुझसे पूछा जा रहा था
बाप का नाम
घर का पता 

प्रश्न के चप्पूओं  से मैं 
खेता  रहा
समय की नाव 

जज साब ! मैंने देखे  हैं 
अपने सामने सेकड़ों युद्ध
अपनी छाती पर बहती खून की नदियां
सही हैं आत्मा पर 
हजारों घावों के दर्द की चीत्कारें   
इसलिए मैं नहीं याद करना चाहता 
वह वक्त 
क्योंकि मैं नए ख्वाबों को लेकर 
जाना चाहता हूँ भविष्य में 
आज़ादी के नए वितान में 
जीवन के नए संविधान में 

लेकिन जज साब!
अब की बार
सियासत की बिसात पर
बनाया गया है मुझे 
साजिश, सत्ता और स्वार्थ का
नया मोहरा 
अपनों ने ही किया है विश्वासघात ...
बताइए जज साब 
ऐसे में उस दिनों 
मैं कहाँ जाता, क्या करता ?

उस दिनों सुबह
हवा में 

भयानक चुप्पी थी
लेकिन मस्तिष्क बज रहे थे
टनाटन 

माँ सरयू  
फटी-फटी आँखों से 
देख रही थीं 
कुचला जाता मेरा बदन
आकार लेता 
एक विराट  ऑक्टोपस  
जो पी रहा था
मेरे जीवन का सत्व 

उस दिन
एक सोये हुए अजगर ने
फिर से ली थी अंगड़ाई 
और पूरा इलाका
काँप उठा था
न जाने अब क्या हो!

आस्था के
अकर्मण्य रिश्तेदार 
देश के वे जिम्मेदार 
किंकर्त्तव्यविमूढ़-से 
हाजिर थे वहीं जज साब!
मैं बता सकता हूँ आज भी 
उनमें से एक-एक के नाम 

में वहीं था उस वक्त 
जब 
बेकसूर सद्भावना और
सम्मति को 
शब्दों के पेड़ों से बांधकर 
लगाए  जा रहे थे कोड़े 
सटासट-सटासट 
उसी समय 
मैंने देखा था जज साब !
कि मुई सियासत ने भी 
भीड़ को
थमा दिया था
नशीला कटोरा, शरारती आग
और नशे में धुत 
दिशाहीन भीड़
करने लगी थी अग्निपान 

मैं वहीं था उस वक्त 
जब नौजवान भविष्य 
प्यास से व्याकुल
माँग रहा था पानी
और वे पानीदार 
उसके मुँह  पर
थूक रहे थे
सांप्रदायिकता  और जातिवाद का
बदबूदार बलगम 

देश का मकरंद 
संशय के धुँए और धूल में 
लिथड़ रहा था 
और  

सिंहासन कि छीना -झपटी में
लग गई थी तिरंगे में 
बड़ी-से खूँत 

जज साब! उस दिन 
सुबह के मुँह से
फूटा था
आदिम युग की 
बदबू का भभूका 
जेहनों से रिस रहा थी
जहरीली गॅस 
जैसे 'यूनियन कारबाइड ' से 
रिस गई थी 
'मेथाइल आइसो-साइनाइड'

उस दिन 
ख़बरों में परोसी गई थी 
इतिहास के कब्रिस्तान की 
पुरानी कब्रों से उघाड़कर
गली हुई लाशों की  सड़ांध  
विद्वेष  की बेहतरीन तस्तरी में 
जिस चटखारे ले -ले 
लपक -लपक कर 
भकोस रहे थे
अख़बारी लोग 

जज साब !
मैं वहीं था उस वक्त
जहां शब्द 
अपना दुरुपयोग न किए  जाने की 

हाथ जोड़कर 
मिन्नतें कर रहे थे सियासत से
चेतावनियाँ दे रहे थे बार-बार 
मगर
कॉफी  की चुस्कियों  
व सिगरेट के कशों के बीच
बुद्धिजीवियों में
चलती रही
सुविधा,सत्ता, और 
स्वार्थ की भागीदारी 
होती रही कबूतरबाजी 
चलते रहे साँड-संघर्ष 
डब्लू-डब्लू एफ   
लोग लगाते रहे 
एक-दूसरे पर
सट्टा ...

जज साब !
जब 
मेरे आँगन में 
गिराए गए थे
वैमनस्य के परमाणु-बम 
तब आणविक विखंडन से
तापमान 
सूर्य के गर्भस्थल से
ऊपर हो चला था वहाँ 

तब 
साफ देखा था मैंने जज साब !
चपेट में आ गई थी 
मेरी बगिया 
हरे-भरे खेत, हरिया की बारात 
मेरी कविता
मेरा इतिहास 
मेरी संस्कृति और
मेरा वजूद

जज साब !
वो तो मेरे राम का ही प्रताप था
जो मैं इस बार
बचकर आ पाया हूँ
आपके सामने

मगर जज साब !
जैकारों, गर्वोक्तियों व 
अट्ट्हासों के बीच 
आज भी नन्ही नुसरत चौंकती है बार-बार 
छूटका वहीद आपा से पूछता है -
"आपा ! अयोध्या में तो 
भक्तों का मेला है
हुजूम है , रेला है 
मगर हमारी फूल की दुकान के फूल
क्यों नहीं बिकते हैं अब ?"

जज साब ! आप तो जानते हैं 
मेरी एक-एक गली में 
नुसरत की, सुलेमान शेख की 
अहमद और  निसार की 
फूलमालाओं की दुकानें हैं 
अहमद वसीम और 
फ़िरोज़ की खड़ाऊं बनाने की  वर्कशाप हैं 
जो प्रतीक्षा कर रही हैं 
आज भी 

मैं इसलिए कह रहा हूँ
जज साब !
क्योंकि 
मुझसे देखा नहीं जाता
फूलों का इस तरह 
मुरझाते हुए प्रतीक्षा करना 
अपने ही घर में 
नन्ही नुसरत का 
इस तरह नींद में चौंकना 

समय! मेरे न्यायाधीश !
में अयोध्या वल्द भारत 
हाथ जोड़कर गुहार लगता हूँ आपसे
इससे पहले 
कि मिट जाए 
मेरा वजूद, मेरा घर-परिवार 
मुझे बचा लीजिए 

बचा लीजिए 
इस अनैतिक सियासत से
इस लम्पट दौर से ...