समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार -एक अध्ययन

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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

मैं अयोध्या...


जज साब !
बचा लो मुझे
बचा लो...
इस अनैतिक सियासत से / इस लम्पट दौर से 

जज साब!
सुन लो मेरी शिकायत 
ले लो मेरी गवाही
लिख लो मेरा बयान

जज साब!
मैं अयोध्या
सरयू-पुत्र अयोध्या 
आपकी अदालत में 
जो कहूँगा 
सच कहूँगा...

जज साब ! यूँ तो वह 
6 दिसम्बर 1992 का दिन था 
मगर हालात ऐसे थे कि वह 
उन दिनों की  
कोई भी तारीख हो सकती थी

उसी दिनों हुआ था
उन तीन गुम्बदों का ध्वंस 
मेरे सांझेपन का कत्ल 
मेरी तहज़ीब का अपहरण 
मेरी पहचान का बलात्कार

जी हाँ जज साब !
मैं वही था उस वक्त 
बेबस और असहाय 
सती होती स्त्री-सा 
जिब्ह होते बकरे-सा 
सूली पर चढ़ते निरपराध-सा 
अपहृत सीता-सा
भयाक्रांत और उद्विग्न  

क्योंकि घोषित हो रहा था 
कि किसी भी वक्त
धकेल दिया जाएगा मुझे
वहीं 'सरयू' में 
कथित धर्म-रक्षार्थाय 

उस दिनों ...
मेले में गुम हुए बच्चे की तरह 
मुझसे पूछा जा रहा था
बाप का नाम
घर का पता 

प्रश्न के चप्पूओं  से मैं 
खेता  रहा
समय की नाव 

जज साब ! मैंने देखे  हैं 
अपने सामने सेकड़ों युद्ध
अपनी छाती पर बहती खून की नदियां
सही हैं आत्मा पर 
हजारों घावों के दर्द की चीत्कारें   
इसलिए मैं नहीं याद करना चाहता 
वह वक्त 
क्योंकि मैं नए ख्वाबों को लेकर 
जाना चाहता हूँ भविष्य में 
आज़ादी के नए वितान में 
जीवन के नए संविधान में 

लेकिन जज साब!
अब की बार
सियासत की बिसात पर
बनाया गया है मुझे 
साजिश, सत्ता और स्वार्थ का
नया मोहरा 
अपनों ने ही किया है विश्वासघात ...
बताइए जज साब 
ऐसे में उस दिनों 
मैं कहाँ जाता, क्या करता ?

उस दिनों सुबह
हवा में 

भयानक चुप्पी थी
लेकिन मस्तिष्क बज रहे थे
टनाटन 

माँ सरयू  
फटी-फटी आँखों से 
देख रही थीं 
कुचला जाता मेरा बदन
आकार लेता 
एक विराट  ऑक्टोपस  
जो पी रहा था
मेरे जीवन का सत्व 

उस दिन
एक सोये हुए अजगर ने
फिर से ली थी अंगड़ाई 
और पूरा इलाका
काँप उठा था
न जाने अब क्या हो!

आस्था के
अकर्मण्य रिश्तेदार 
देश के वे जिम्मेदार 
किंकर्त्तव्यविमूढ़-से 
हाजिर थे वहीं जज साब!
मैं बता सकता हूँ आज भी 
उनमें से एक-एक के नाम 

में वहीं था उस वक्त 
जब 
बेकसूर सद्भावना और
सम्मति को 
शब्दों के पेड़ों से बांधकर 
लगाए  जा रहे थे कोड़े 
सटासट-सटासट 
उसी समय 
मैंने देखा था जज साब !
कि मुई सियासत ने भी 
भीड़ को
थमा दिया था
नशीला कटोरा, शरारती आग
और नशे में धुत 
दिशाहीन भीड़
करने लगी थी अग्निपान 

मैं वहीं था उस वक्त 
जब नौजवान भविष्य 
प्यास से व्याकुल
माँग रहा था पानी
और वे पानीदार 
उसके मुँह  पर
थूक रहे थे
सांप्रदायिकता  और जातिवाद का
बदबूदार बलगम 

देश का मकरंद 
संशय के धुँए और धूल में 
लिथड़ रहा था 
और  

सिंहासन कि छीना -झपटी में
लग गई थी तिरंगे में 
बड़ी-से खूँत 

जज साब! उस दिन 
सुबह के मुँह से
फूटा था
आदिम युग की 
बदबू का भभूका 
जेहनों से रिस रहा थी
जहरीली गॅस 
जैसे 'यूनियन कारबाइड ' से 
रिस गई थी 
'मेथाइल आइसो-साइनाइड'

उस दिन 
ख़बरों में परोसी गई थी 
इतिहास के कब्रिस्तान की 
पुरानी कब्रों से उघाड़कर
गली हुई लाशों की  सड़ांध  
विद्वेष  की बेहतरीन तस्तरी में 
जिस चटखारे ले -ले 
लपक -लपक कर 
भकोस रहे थे
अख़बारी लोग 

जज साब !
मैं वहीं था उस वक्त
जहां शब्द 
अपना दुरुपयोग न किए  जाने की 

हाथ जोड़कर 
मिन्नतें कर रहे थे सियासत से
चेतावनियाँ दे रहे थे बार-बार 
मगर
कॉफी  की चुस्कियों  
व सिगरेट के कशों के बीच
बुद्धिजीवियों में
चलती रही
सुविधा,सत्ता, और 
स्वार्थ की भागीदारी 
होती रही कबूतरबाजी 
चलते रहे साँड-संघर्ष 
डब्लू-डब्लू एफ   
लोग लगाते रहे 
एक-दूसरे पर
सट्टा ...

जज साब !
जब 
मेरे आँगन में 
गिराए गए थे
वैमनस्य के परमाणु-बम 
तब आणविक विखंडन से
तापमान 
सूर्य के गर्भस्थल से
ऊपर हो चला था वहाँ 

तब 
साफ देखा था मैंने जज साब !
चपेट में आ गई थी 
मेरी बगिया 
हरे-भरे खेत, हरिया की बारात 
मेरी कविता
मेरा इतिहास 
मेरी संस्कृति और
मेरा वजूद

जज साब !
वो तो मेरे राम का ही प्रताप था
जो मैं इस बार
बचकर आ पाया हूँ
आपके सामने

मगर जज साब !
जैकारों, गर्वोक्तियों व 
अट्ट्हासों के बीच 
आज भी नन्ही नुसरत चौंकती है बार-बार 
छूटका वहीद आपा से पूछता है -
"आपा ! अयोध्या में तो 
भक्तों का मेला है
हुजूम है , रेला है 
मगर हमारी फूल की दुकान के फूल
क्यों नहीं बिकते हैं अब ?"

जज साब ! आप तो जानते हैं 
मेरी एक-एक गली में 
नुसरत की, सुलेमान शेख की 
अहमद और  निसार की 
फूलमालाओं की दुकानें हैं 
अहमद वसीम और 
फ़िरोज़ की खड़ाऊं बनाने की  वर्कशाप हैं 
जो प्रतीक्षा कर रही हैं 
आज भी 

मैं इसलिए कह रहा हूँ
जज साब !
क्योंकि 
मुझसे देखा नहीं जाता
फूलों का इस तरह 
मुरझाते हुए प्रतीक्षा करना 
अपने ही घर में 
नन्ही नुसरत का 
इस तरह नींद में चौंकना 

समय! मेरे न्यायाधीश !
में अयोध्या वल्द भारत 
हाथ जोड़कर गुहार लगता हूँ आपसे
इससे पहले 
कि मिट जाए 
मेरा वजूद, मेरा घर-परिवार 
मुझे बचा लीजिए 

बचा लीजिए 
इस अनैतिक सियासत से
इस लम्पट दौर से ...

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