दोहे
केवल दुख सहते रहो, यही नहीं है कार्य
अपने दुख को शब्द भी, देना है अनिवार्य
मिलते जुलते हैं बहुत, अपने अहसासात
इसीलिए तो कह रहा, सुन ले मेरी बात
संशय के सुनसान में, जला जला कर दीप
दुख कि आहात रात भर, सुनता रहे 'समीप'
कोई तो सुन ले यहाँ, मेरे दिल का राज़
सूख गया मेरा गला, दे दे कर आवाज़
आखिर अपने दुख का, किस को दें इल्ज़ाम
जितनी मिलीं तबहियाँ, सब कि सब बेनाम
क्या तुमको मालूम है, उपवन में इस बार
शोले लेकर आई है, शातिर क्रूर बहार
दुर्योधन सा वक्त यह, बोला रहा अपशब्द
वहीं हमारे सुरमा, बैठे हैं निशब्द
इतना भी बूढ़ा न था, न ज़मीन थी सख्त
फिर ऐसा कैसे हुआ, मुरझा गया दरख्त
पानी ही पानी रहा जिनके चारों ओर
प्यासा प्यासा चिल्ला रहे वही लोग पुरजोर
गर्व करें किस पर यहाँ, किस पर करें विमर्श
आधा है यह इंडिया, आधा भारतवर्ष
आने वाले वक्त की कैसे हो पहचान
वर्तमान बेचहरा याद लहूलुहान
बिना रफू के ठीक थी, शायद फटी कमीज़
बाद रफू के हो गई, वो दो रंगी चीज़
फिसल हाथ से क्या गिरी, संबंधों की प्लेट
पूरी उम्र 'समीपजी', किरचें रहें समेट
जाने कैसी चाह ये, जाने कैसी खोज
एक छाव की आस में, चलूँ धूप में रोज
क्यों रे दुखिया क्या तुझे इतनी नहीं तमीज़
मुखिया के घर आ गया, पहने नई कमीज़
खाली माचिस जोड़कर, एक बनाऊँ रेल
बच्चा-सा हर रोज़ मैं, उससे रहा धकेल
अब भी अपने गाँव में बेटी यही रिवाज
पहले कतरें पंख फिर कहें भर परवाज़
उस दुखिया माँ पर अरे, कुछ तो कर ले गौर
तुझे खिलाती जो रही, फूँक-फूँक कर कौर
आयेगी माँ आयेगी यूं मत हो मायूस
तू बस थोड़ी देर और अंगूठा चूस
पुलिस पकड़कर के गई, सिर्फ उसी को साथ
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ
मरने पर उस व्यक्ति के बस्ती करे विलाप
पेड़ गिरा तब हो सकी ऊंचाई कि नाप
कैसे तय कर पायेगा वो रहें दुश्वार
लिये सफर के वास्ते जिसने पाँव उधार
इतना ही मालूम है, इस जीवन का सार
बंद कभी होते नहीं, उम्मीदों के द्वार
फिर निराश मन में जगी, नवजीवन कि आस
चिड़िया रोशनदान पर, फिर से लाई घास
आओ हम उजियार दें यह धरती यह व्योम
तुम बन जाओ वर्तिका मैं बन जाॐ मोम
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